Friday, October 7, 2016

विहंगम मार्ग

--  कुंदन अमिताभ --

हर सोचऽ के साक्षी बनी
आगू-आगू बढ़त॑ रही क॑ 
विहंगम मार्ग अपनाबंऽ ?
सरंग सथं॑ सरंग तले 
विस्तृत विस्तार पाबँऽ ?

हर सोचऽ सं॑ अनजान मनऽ मं॑ 
कभी भी सोचऽ के उदगम होय छै 
अच्छा-बुरा सोच फैली जाय छै
हहरैलऽ घटा सन कभी भी
मऽन के डोर क॑ लेबझाबै छै ।

तोंय मऽन कहाँ ?
तोंय इक आत्मा
मऽन तन सं॑ लागलऽ छै !
पर आत्मा ?
आत्मा भी त॑ नै लागलऽ छै ?

तोंय सरंग छेको
आरू सोच बस घटा
कि घटा कहियो सरंग क॑ 
छूअ॑ सकल॑ छै भला ?
चाहे कत्तो गहराब॑ उमड़ी क॑ ?

सरंग की कहियो घटा सथं॑
परस्पर मिली क॑ चललऽ छै ?
चाहे कत्तो सुंदर रूप धरी ल॑ घटां
कि सरंग साथ चलै ल॑ उतरलऽ छै ?
बोकऽ मानुस जकाँ नीचां ?

हर सोचऽ के साक्षी बनी
आगू-आगू बढ़त॑ रही क॑ 
विहंगम मार्ग अपनाबंऽ ?
सरंग सथं॑ सरंग तले 
विस्तृत विस्तार पाबँऽ ?

सरंग नाकती विहंगम मार्ग अपनाबऽ !

Angika Poetry : Vuhangam Marg
Poetry from Angika Poetry Book : 
Poet : Kundan Amitabh
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